सच हम नहीं, सच तुम नहीं, सच है महज संघर्ष ही!

रविवार, मई 16, 2010

वो भुकड़ी लगी रोटियां

आज पढ़ रहा था
भुकड़ी लगे
रोटियों को,
थोड़ी पिली जरूर
पर शब्दश: सब कुछ
अभी भी लिखा है
उन रोटियों पर
माँ का प्यार और सुझाव,
पिता का स्नेह और
मानी-आर्डर के पावती का जिक्र,
बहन के साथ
झोटा-पकड़ लड़ाई पर
माँ की डांट ,
हर रोटियां
कुछ न कुछ
जरूर कह रही हैं,
उसी में दबा मिला
एक और रोटी
लिफाफे में बंद,
यादे ताज़ा हो गयीं
पहले प्यार की
पहली चिट्ठी से,
मै आज बेहद रोमांचित हूँ
उन चन्द
रोटियों पर पड़े शब्दों को पढ़,

चुक्कड़ की जगह
शीशे की ग्लास में
चाय पीता बलरेज में
मै आज यही सोच रहा हूँ कि
अब रोटियां कहाँ विलुप्त
हो गयीं हैं...
आज क्यों नहीं दस्तक
दे रहे हैं खाखी पहने
झोला टाँगे बाबर्ची,
फास्टफूड के आगे..
अब यादों को फटे लिफाफे
और बंद पेटियों में
सहेजना
मुश्किल ही नहीं नामुमकिन
जान पड़ता है....

- सौरभ के.स्वतंत्र

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